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॥ अनुमवप्रकाश ॥ पान २७॥ . जैसे एक दृष्टिबन्धवालो नर एक नगरमें एक राजाके समीप आय रह्यो । केतक है दिनपीछे राजा. मूवौ । तब वा नरनैं राजाको मूवो न जनायो। राजाको तो बहुत है उंडों गाडि माटी दे, ऊपरि बेमालुम जायगां करि दृष्टिबन्धसौं काठकों राजा दरवारमैं । हैं बैठायो । दृष्टिबंधसूं सबकौं सांचौ भासै । जब कोई राजाको बूझै, तब वो नर जुबाव दे, है है तब लोक जानै, राजा बोले है । ऐसो चरित्र दृष्टिवन्धसौं कीयो । तहां एक नर है
वनकी बूंटी सिरपरि टाँगि आयो, उस बूँटीके वल” वाकी दृष्टि न बंधी। तब वह है नर लोकको कहने लाग्यो, रे कुबुद्धि जन हौ! काठको प्रत्यक्ष देखिये है। तुम याकौ है है साचौ राजा जानि सेवो हो, धिक्कार है तुमारी ऐसी समझिको। तैसैं ये संसारी सब है है. इनकी दृष्टि मोहसौ बंधी, परको आपा मानि सेवै हैं । परमैं चेतनाका अंशहू नाही।।. है ज्ञान जाकै भयो, सो ऐसै जाने है, ये संसारी कुबुद्धि जडमैं आपा करि मान हैं। है । दुःख सहे हैं। धिक्कार इनकी समाझिकौं! झूठ हठ दुःखदायको सुखदायक जानि सेवै हैं !! है।