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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ७५ ॥ ६ रहनेका काल बड़ा है । अरु थोरे ही काल पीछे होइ है। सर्वविरतिकै स्वानुभव दीर्घ है । अन्तर्मुहूर्तताई होइ है । ध्यानस्यौं भी होइ है । अति थोरे थोरे कालपीछे स्वानुभव है हुवा ही करे, वारंवार अवरु सातमैं । तेई परिणाम पूर्वस्वानुभवरूप भए थे तेतौ स्वानु-है है भवरूप रहै, पै तहांसौं मुख्यरूप कर्मधारासौं विकसि निकसि स्वरसस्वाद अनुभवरूप है है होते हैं ते चले । ज्यों ज्यौं आगूंका (पहिलेका) काल आवै है सौ सौं अवर अवरु । है परिणाम स्वस्वादरस अनुभवरूप होई करि बढते चलें हैं। यौंकरि तहांसौं अनुभवहैं दशाकी परिणाम बढनि करि पलटनि होइ है । क्षीणमोह अन्तलगु जाननी ॥
भो भव्य! तू एक बात सुनि-हम एक अवरु कहें हैं। यह स्वानुभवदशा स्वसहै मयरूप सुख है, शान्ति विश्राम है, स्थिररूप है, निजकल्याण है, चैन है, तृप्तिरूप है है है, समभाव है, मुख्य मोक्षराह है, ऐसा है। अरु यहु सम्यक् सविकल्पदशा यद्यपि है हैं उपयोग निरमल है तथापि यहां चारित्र परिणाम परालंब अशुद्ध चंचल होते संतै सवि-है