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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ५॥ है होय । भेदविना अभेद द्रव्य गुण होय । अभेदविना एक वस्तु न होय । अस्तिविना है १ नास्ति होय । नास्तिविना परकी अस्तिता होय | साकारविना निजाकृति न होय । है
निराकारविना पराकार धरि विनाश पावै । अचलस्वभावविना चल होय । ऊर्ध्वगमन-इ है स्वभावविना उच्चपद न जान्यौ परै । इत्यादि अनंत विशेपण ज्ञानी अनुभव करे। सो है निजजानि कैसैं होय ? सो कहिये हैं ।। है प्रथम अनादि परमैं अहं ममरूप मिथ्याका नाश करै। पीछै पररागरूप भाव विध्वंस करै । जब परराग मिटै तब वीतराग होय । परप्रवेशका अभावभाव भया, तब स्वसंवेदरूप निजजानि होय । अथवा अपने द्रव्य गुण पर्यायका विचार करि निजपद है जाने । अथवा उपयोगमैं जानरूप वस्तुकौं जाने। अनन्तमहिमाभण्डार सार अविकार अपारशक्तिमण्डित मेरा स्वरूप ऐसा भाव प्रतीतिकरि करै । ध्यान धरै निश्चल होय यह जांनि जाने। निजरूपजानहीकों अनुपपदका सर्वस्व जानै । इस स्वरूपकी है
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