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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ६०॥
है सो निश्चयज्ञानपरिणतिकरि स्वरूप आचरना स्वरूपाचरण । परमात्माका श्रद्धानज्ञान है है निश्चयकरि केतेक ज्ञानादि शुद्धशक्तिकरि भया । तैसेंही आचरण भया ।
निश्चयनय परमात्मा है । परिणति वैसीही निश्चयरूप परिणई है। ये निश्च-है हैं यरत्नत्रय प्रथम व्यवहाररत्नत्रय भये होय हैं । तातै व्यवहाररत्नत्रय साधक, निश्चय- है है रत्नत्रय साध्य है। सम्यग्दृष्टिकै विरति व्यवहारपरिणति साधक है, तहां चारि-है है त्रशक्ति मुख्य साध्य है । सो कहिये हैं । विरति परिणति कहिये रति नांही । ताके हैं है भेद विषयनमैं रति नाही, कषायमै रति नाही, अशुभाचरणका त्याग, शुभाच-१ है रणमैंह रति नांही, कर्मकरतूति रति नांही । ज्यौं ज्यौँ पररातभाव तजै, सौं त्यौं स्वरू- है है पविर्षे थिरता विश्राम और आचरण होय, तहां चारित्र कहिये । परिणतिशुद्धता प्रगटै । है चारित्रशक्ति मुख्य साध्य है । देवशास्त्रगुरुभक्ति विनय नमस्कारादि भाव साधक है, है तहां विषयादि उदासीनतामैं परिणति स्थिरता साध्य है देवभक्ति परमात्मव्यक्त शुद्ध- है