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________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १११ ॥ १ अविकार सारसरूप दुरनिवार मोहसौं रहित होय । अनुपम आनंदघनकी भावना है है करणी । अंश अंश परका जडवा परजीव सब स्वरूपसौं भिन्न जानि दर्शन ज्ञान चारि-है त्रादि अनंतगुणमय हमारा स्वरूप है। प्रतीतिमैं ऐसे भाव करत पर न्यारा भासै विभाव ऊफदमल आपके न रमतै भया । तिसतै भरम मेटि विभाव न होय स्वभाव है प्रगटै अनादि अज्ञानतें गुप्तज्ञान भया । शुद्ध अशुद्ध दोऊ दशामें ज्ञान शासती शक्ति है है कौं लीये चिद्विकारभाव क्रोधादिरूप भये होय सोही भाव मेटि निर्विकार सहजभाव है है आप आपमैं आचरण विश्राम थिरतापरणामकरि करै। जो वाह्यपरिणाम उठे है सो है है अशुद्ध है सो परिणामका करणहार अशुध्द होय है । बाह्य विकारमैं न आवै । चेतना है है नांव उपयोगरूप अपनी इस ज्ञायक शक्तिकौं नीकै जानै तौ निजरूप ावा होय ।। हुप्रतीति चेतन उपयोगकी करत करत परसौं स्वामित्व मेटि मेटि स्वरूप रसास्वाद है १ चढता चढता जाय । तब शुद्ध उपयोग स्वरस पूर्ण विस्तार पावै । तब कृतकृत्य नि. है
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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