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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४४॥ सर्वज्ञदेव. सव उपदेशका मूल यह बताया है, एकवेर स्वसंवेदरसका स्वादी होय है है तो ऐसा आनन्दमैं मम होय, परकी ओर फिरि कबहू दृष्टि न दे। स्वरूपसमाधि है है सन्तनका चिन्ह है । चिसके भये रागादि विकार न पाइये जैसैं आकाशमैं फूल न है है पाइये । देह अभ्यासका नाश अनुभवप्रकाश चैतन्यविलास भावका लखाव लखि ल-है १क्ष्यलक्षण लिखनेमैं न आवै । लखै सुख होय । स्वादरूप लिखै न होय । आत्मसहित है हैं विश्व व्याख्येय, व्याख्या वाणीकी रचना, व्याख्याता व्याख्यान करनहार ये सब बात है है कछु है, सो मोहके विकारौ मानिये हैं। अनादि आत्माकी आकुलता एक विशुद्ध । हैं वोधकलाकरि मिटै है । तातै सहजवोधकलाका निरन्तर अभ्यास करो । स्वरूपआनन्दी है है होय भवोदधिकों तिरौ ॥ .
नरभव कछु सदा तौ रहै नहि, साक्षात् मोक्षसाधन ज्ञानकला इस भवविना है है और जायगा न उपजै । तातें वाखार कहिये है, निजबोधकलाके बलकरि निजस्वरूपमैं है