SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ... . . . . ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १५ ॥ सामर्थ्यमात्रं, केवल ऐसा प्रतीत्यभाव रुचिभावकी आस्तिक्यताश्रद्धान श्रद्धा कहिये । है तिसत उपजी आनन्दकन्दमै केलिकरि सुखी हौं । जान्या आनन्द ज्ञानानन्द, स्वरूप है देखै आनन्द सो दर्शनानन्द, परिणया आनन्द चारित्रानन्द । ऐसें सब गुणानन्द, । तिसका मूल निजस्वरूप आनन्दकन्द । तिसकी केलि स्वरूपमैं परिणति रमावणी ।। हैं तिसतै सुखसमूह भया है। और इसतै ऊंचा उपाय नांही। भव्यनकौं शिवराह सो. है हली (सहज ) यह भगवंत. बताई है। भगवन्तकी भावनातें सन्त महन्त भये ।। है मैंभी याही भावनाका अवगाढ थंभ रोप्या है । सम्यग्दृष्टीकै ऐसां निरन्तर अभ्यास है है रहै ॥ कर्मअभावते ज्ञान स्वरसमण्डित सुखका पुंज प्रगटै तब कृतकृत्य होय है। इस है है आतमका स्वरूप गोप्य हो रहा है । साक्षात् कैसे होय? भावना परोक्षज्ञानकरि बढाई है है है । सो कैसे सिद्धि होय सो कहिये हैं। है जैसें दीपकके पांच पडदे हैं। एक पडदा दुरि भये, झीणा वारीक उद्योत है
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy