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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९२॥ है योग्यं ज्ञेयं ” यह ज्ञेयाधिकार ज्ञेय जानि परकौं व्यंजन करें निज ज्ञेयकौं जानि १ स्वरूपानुभव करणां ॥
॥ आगें निजधर्माधिकार कहिये हैं । निजधर्म वस्तुस्वभाव सो आतमा निजधर्म निर्विकार सम्यक् यथारूप अनंत- है है गुणपर्यायस्वभाव सो धर्म कहिये । निश्चयज्ञानदर्शनादि अपना धर्म है। जीव निज-है है धर्म धरतही परमशुद्ध है । निज कहिये आप, तिसका धर्म कहिये स्वभाव, सोई है निजधर्म कहिये। अपने स्वभावरूप सब पदार्थ हैं। उनका धर्म उनका निजधर्म है। है
आतमामैं है । तातें दर्शन ज्ञानहीकौं निजधर्म ऐसा मति कहौ । ताको समाधान है है स्वभाव तौ सब सबही कनै है। उनका धर्म उनका स्वभाव यह तौ यौही है। परितारण है है धर्म, सजीवधर्म, प्रकाशधर्म, उनके धर्मकों प्रगटै । ऐसा धर्म परमधर्म, हितरूपधर्म, है ६ असाधारणधर्म, अविनाशी सुखरूपधर्म, चेतनापाणधर्म, परमेश्वरधर्म, सर्वोपरिधर्म, है
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