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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९३ ॥ अनंतगुणधर्म, शुद्धस्वरूपपरिणतिधर्म , महिमा अपारधारक धर्म , निजशुद्धात्मस्वभा१ वरूपधर्म, सो निजधर्म है । इनका विशेषभेद कहिये हैं। है यह अनादिसंसारमैं जीव कर्मयोगते जन्मादिदुःख भोगवै हैं। इस परधर्मकों निजधर्म मानै हैं । तातै दुःख पावै हैं । यह तो सांच है। काहेत? जो सिरदार प्रधान !
पुरुषकौं निंद्यमैं गिणे सो दण्ड है । निंद्यदेहमैं चेतनधर्म मानें, सो दुःख पावैही पावै ।। है शुद्धचैतन्यधर्मकौं जब धर्म जानै तब संसारतारणधर्म अनंतचेतनारूपधर्म तातें सुजीव-है
धर्म स्वज्ञेय परज्ञेय प्रकाशै, याते प्रकाशधर्म सब द्रव्यनिके धर्म प्रगट याने कीये उनके है धर्मकौं प्रगटै ॥ सवतै उत्तम यातै परधर्म धर्म निजरूप” अनंतसुख होय । यात है है हितधर्म औरमैं न पाइये । यातें असाधारणधर्म अविनाशी आनंद सहजरूप ताते हैं
अविनाशी सुखरूपधर्म चेतनाप्राण धरै, तातें चेतनाप्राणधर्म परमेश्वर सहजरूप ऐसे स्वभावमय परमेश्वर धर्म सबतें उत्कृष्ट है । तातें सर्वोपरि धर्म अनंतगुण है स्वभाव