Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 96
________________ ॥अनुमवप्रकाश ॥ पान ९४ ॥ हैजाको तातें अनंतगुणधर्म शुद्धस्वरूप सदा परणमै शुद्ध भयें । तातें शुद्धस्वरूपपरिहै णतिधर्म अपारमहिमाकौं लीये । तातें अपारमहिमाधारक धर्म अनंतशक्तिकौं धरै ॥ ___अनंतशक्तिरूप धर्म अनंतपर्याय एक गुणकी, ऐसे अनंत गुण अनंतमहिमा१ को धरै, सो निजधर्मकी महिमा कहालौं कहिये ? । एकोदेश निजधर्म धरैहूं संसारहै पार होय है। काहेत ? एकोदेश भये सर्वोदेश होयही होय । तातें जानियौं परधर्म-है इतें अनंतदुःख, निजधर्मः अनंतसुख ॥ यातें निजधर्मकों धारि अपना परमेश्वरपद है ३ प्रगट कीजै । निजधर्मकी धारणा अनुभवतें होय । निजधर्म भये अनुभव होय । याते है १ अनुभवसार सिद्धिनिमित्त निजधर्म अधिकार कह्या ॥ ॥ आगें मिश्रधर्मअधिकार कहिये हैं। सो मिश्रधर्म अंतरात्माकै है, सो काहेरौं सम्यक् स्वरूप श्रद्धान जेते कषाय । है अंश हैं तेते रागद्वेषधारा है। आत्मश्रद्धाभावमैं आनंद होय है। कषाय सर्वथा न है

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