Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 116
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११४ ॥ है करिये। जो भाव मनोहर जानि मोह करै है । अपने आतमाकौं झूठी अविद्या के विनो-है है दकरि ठग है। सकल जगत चारित्र झूठ वन्याही है, सो मोहते न जाने है। जो स्वरस-३ सेवन तो पर प्रीति रीति रंच हूं न धारै । अनंतमहिमाभाण्डारको ज्ञानचेतनामें आपा है १ अनुभवै । जो जो उपयोग उठै सौ मैं हौँ ऐसा निश्चय भावनमैं कर, तौ तिरही तिरै । है अनादिका विचार करै । अनादिका पर आपा जानि दुःख सह्या । अब श्रीगुरुनें ऐसा है उपदेश कह्या है । तिसकौं सत्यकार मानतही श्रद्धाः मुक्तिका नाथ होय है । ताते धन्य सद्गुरु जिनौंने भवगर्भमेसौं काढनेका उपाय दिखाया। तातै श्रीगुरुकासाह उपकारी कोई नाहीं । ऐसें जानि श्रीगुरुके वचनप्रतीतिते पार व्हैना ॥ जेता अनुराग विषयनमैं करै है, मित्र पुत्र भार्या धन शरीरमै करै है, तेता है है रुचि श्रद्धा प्रतीतिभाव स्वरूपमैं तथा पंचपरमगुरुमै करै, तौ मुक्ति अतिसुगम होय । है पंचपरमगुरुरागभी ऐसा है, जैसा संध्याका राग सूर्य अस्तताका कारण है प्रभातकी है

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