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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ११८॥
सवैया.
है, महिमाको धारै है । दोषकों हरणहार है । यातें चिदानंदको सुधार है ।
देव जिनेन्द मुनीन्द सवै अनभौरस पीयक आनंद पायौ । केवलज्ञान विराजत है निति सो अनभौरस सिद्ध लखायौ ॥ एक निरंजन ज्ञायकरूप अनूप अखण्ड स्वस्वाद सुहायौ । ते धन्य हैं जगमांहि सदैव सदा अनभौ निज आपकौं भायौ ॥१॥
यह अनभौ परकाश ज्ञान निज दाय है। करि याको अभ्यास संत सुख पाय है ॥ यामें ( अनूप अरथ ) सदा भवि सरद है। कहै दीप अविकार आपपदकौं लहै ॥१॥ इति श्रीदीपचंद साधर्मीकृत अनुभवमकाश नाम ग्रन्थ संपूर्ण.
अडिल.