Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 115
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११३ ॥ कांकरेनौं हरि हीरा मोती दिखावै है। बुहारीके तृणकौं सर्पकरि दिखावै है। है तहां वस्तु लोकनकौं साची दरसै । परि साची नाहीं । तेसै परमैं निज मांनि आपकों है हैं सुख कल्पै सो सर्वथा झूठ है । सुखका प्रकाश परम अखण्ड चेतनाके विलासमैं है। है है शुद्धस्वरूप आप परकौं (खौ )जना करें तब पावै । वारवार विस्तार कहिणां इस है वाखौ आवै है। अनादिका अविद्यामै पगि रहा है। मोहकी अत्यंत निविड गांठि ई पारी है । ताः स्वपदकी भूलि भई है । भेदज्ञान अमृतरस पीवै । तब अनंतगुणधाम है अभिरामकी. अनंतशक्तिकौं अनंतमहिमा प्रगट करें। यह सब कथनका मूल है। हूँ परपरिणाम दुःखधाम जानि भानि परकी मेटि स्वरस सेवन करणां अरु निदान परि दिष्टि । है कीजै। विनश्वर परदुःखमूलका सेवन अनादि कीया। जन्मादि दुःख भये। अब नरभवमैं है संत संगते तत्वविचार कारण मिल्या तौ फेरि कहा अनादिभवसंतानकी बाधाके करणहार है है परभाव सेइये । जिसतै अखंडित अनाकुल अविनाशी अनुपम अतुल होय सोहू भाव है

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