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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११२ ॥
वसै। यह श्रीजिनेन्द्रशासन मैं स्याद्वादविद्या के बलतें निजज्ञान कला कौं पाय अनाकुल पद अपना करै । इहां सब कहने का तात्पर्य यह है । जो परकी अपना पति सर्वथा मेटि स्वरसरसास्वादरूप शुध्द उपयोग करिये । रागद्वेष विषमव्याधि है सो मेटि मेटि परमपद अमर होय । अतीन्द्रिय अखण्ड अतुल अनाकुल सुख आप पदमैं स्वसंवेदन प्रत्यक्षकरि वेदिये । सकल संत मुनिजन पंचपरमगुरुस्वरूप अनुभवक करे हैं । तातैं महान् जन- जा पंथक पकरि पार भये सोही अविनाशीपुरका पंथ ज्ञानीजननकौं पकरणा अनंतकल्याणका मूल है । परिणाम चेतनाद्रव्य चेतना में लीन भयें अचलपद ज्ञानज्योतिका उद्योत होय है । एकोदेश उपयोग शुद्ध करि स्वरूपशक्तिकौं ज्ञानद्वारमैं जाननलक्षण करि जानें । लक्ष्यलक्षणप्रकाश आपका आपमैं भासै । तब सहजधारा वाही । निजशक्ति व्यक्त करता करता संपूर्ण व्यक्त करता करता संपूर्णव्यक्तत्ता करै । तव यथावत् जैसा तत्त्व है तैसा प्रत्यक्ष लखावै । देखो कोई भगल विद्याकरि