Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

View full book text
Previous | Next

Page 112
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११० ॥ होय । चेतना जड न होय यह प्रत्यक्ष सर्व ग्रन्थ कहै सब जन कहै । जिनवाणी विशेषकर कहै । अपनें जानíमैं आवै । शरीर जड अनंते त्यागे । दर्शनज्ञान सदा साथि रहवो कीया सो अबभी देखनें जाननेंवाला यह मेरा उपयोग सोही मेरा स्वरूप है । इस उपयोगी अनउपयोगी विचारत प्रतीति जड चेतनकी आवै । विभाव कर्मचेतना है । कर्म राग द्वेष मोह भावकर्म तिसमैं चेतना परणाम है । तव चिद्विकार होय । इस चिदिकारकों आपकरि आपा मलिन कीया है । केवलज्ञानप्रकाश आत्माका विलास है । तिसकौं न सभारे है । मोहवशर्तें ग्रन्थकों सुणै है अरु जानै है । शरीर विनसैगा परिवार धन तिया पुत्र येभी न रहैगे । परि इनसौं हित करै । नरकबंध परै । अनंतदुःखकारणकौं सुख समझे ॥ ऐसी अज्ञानता मोहवशकरि है । तातैं ज्ञानप्रकाश मेरा उपयोग सदा मेरा स्वरूप है। सो सदा स्वभाव मेरा मैं हौं । कबहूं जिसका वियोग न होय अनंतमहिमा भण्डार

Loading...

Page Navigation
1 ... 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122