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॥ अनुभवप्रकाश ।। पान १०९॥ है प्रथम श्रीजिनेन्द्रदेव आज्ञा प्रतीति करै, तहां पाईं भगवत्प्रणीत तत्व उपादेय है विचारै । चेतन प्रकाश अनंतसुखधाम , अमल अभिराम, आत्माराम पररहित उपादेय है
पर हेय स्वपरभेदज्ञानका निरंतर अभ्यासतें शुद्धचैतन्यतत्वकी लब्धि होय तिहिते है है राग द्वेष मोह मिटै । कर्मसंवर होय । तब कर्म मिटवा निजज्ञानतें निर्जरा होय । तब है
सकलकर्मक्षय निजपरिणाम हुवा भावमोक्ष होय । तब द्रव्यमोक्ष होयही होय । ताते है भेदज्ञान अभ्यास. परमपद सिद्ध सो भेदज्ञान उपजावाको विचार कहिये है ।। है ज्ञानभाव जाननरूप उपयोग विभावभाव अपनें जान है । सो विभावके जाननेकी है
शक्ति आत्मा आपणी जाने । जानि रूप परिणमन करै । ज्ञानरस पीवै विभावनकौं ? है न्यारे न्यारे जाने । विभावसुधाधारा ज्ञानरूपपरणाम सुधाधारा न्यारी । धारा दोन्यौ ।
जानै । पुद्गल अंश आठ कर्म शरीरभिन्न है जड है, । चेतन उपयोगमय है। इनमें हैं विवेचन करै । जुदा प्रतीतिभाव करै, प्रत्यक्ष जड रहै। सदा जामैं चेतना प्रवेश न ?