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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १०७ ।। एकोदेश स्वरूपानंद ऐसा है ।।
जहां इन्द्रियविकार बल विलय भया है, मन विकार न होय, सुख अनाकुल है रस रूप समाधि जागी है, “अहं ब्रह्म” “अहं अस्मि" ब्रह्म प्रतीति भावनमैं हैं थिरतामै समाधि भई; तहां आनंद भया । सो केतेक काललगु 'अहं' ऐसा भाव है है रहै, फिर समाधिमैं 'अहंपणा' तौ छुटै, 'अस्मि' कहिये है, ऐसा भाव रहै तहां है १ दर्शन ज्ञानमय हौं, मै समाधि लागें हौं, ऐसा हू रहणा विचार है ॥
इसके मिटें विशेष ऐसा होय जो द्रव्यश्रुतवितर्कपणा मिटी। एकत्व स्वरूपमें १ भया एकताका रसरूप मन लीन भया समाधि लागी तहां विचारभेद मिट्या अनु-है भव वीतरागरूप स्वसंवेदनभाव भया । एकत्व चेतनामैं मन लागा लीन भया। तहां है इन्द्रियजनित आनंदके अभावते स्वभाव लखावका रसास्वाद करि आनंद वढ्या तहां है १ फिरि अस्मिभाव ज्ञानज्योतिमैं था सोभी थक्या ॥