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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९५॥ गई मुख्य श्रद्धाभाव गौण परभाव एक अखण्ड चेतनाभाव सर्वथा न भया, ताते मिश्रभाव है। अज्ञानभाव बारमैतक एकोदेश ज्ञानचेतना है। अरु कर्मचेतनाभी है।
तातें मिश्रधारा है। स्वरूपउपयोगमैं प्रतीत भई । परि शुभकर्मकी धारा वहै है। । तिनसौं रंजकभाव कर्मधारामैं है । परश्रद्धानस्वरूप मुक्तिकारण है। भववाधा मेट- है है नकौं समर्थ है । ऐसा कोई कर्मधाराका दुर्निवार आप है। प्रतीतिमैं स्वरूप ठावा है है कीया है । तौहू सर्वथा न्यारा न होय है, मिश्ररूप है । कोई प्रश्न करै-कि, सम्यक् है है गुण सर्वथा क्षायिकसम्यग्दृष्टिकै भया है वा न भया है? ताकौं समाधान कहौहै जो कहुगे, सर्वथा भया, तौ सिद्ध कहौ । काहेरौं ? एकरण सर्वथा विमल भये सब है
शुद्ध होय सम्यक्गुण सब गुणमैं फैल्या है, सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सब गुण सम्यक् । है भये । सर्वथा सम्यग्ज्ञान नहीं, एकोदेश सम्यग्ज्ञान है । सर्वथा ज्ञान सम्यक् होता है है तौ सर्वथा सम्यक् गुण शुद्ध होता, तारौं सर्वथा न कहिये । जो किंचित् सम्यक्गुण है