Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 100
________________ 1 वरण है । तातैं अज्ञानभाव वारमैंतक है । तातैं अंतर आतमा है । प्रत्यक्षज्ञानविना ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९८ ॥ परमातमा नाहीं । कषाय गये परि अज्ञानभाव है । तातैं परमात्मा नाहीं अंतर है, वारमैं अज्ञान कहा ? ताकौ समाधान - केवलज्ञानविना सकलपर्याय न भासै सोही अज्ञान निज प्रत्यक्षविनाहू अज्ञान है । तातैं अज्ञानसंज्ञा भई । यह मिश्रअधिकार ॥ आ, निश्चयकरि वस्तुका स्वरूप जैसा है, ताका कछु वर्णन कीजिये है । वस्तु निज अपना स्वरूप अनंतंगुणमय तिनमैं दर्शन ज्ञान चारित्र प्रधान काहे तें ? देखन जानन परिणवनकरि, वेदनतें रसास्वाद अनुभव होय, तहां सुख कित प्रगटै, तिनकरि चेतना जानी परि, तब चेतनसंत्ता, चेतन वस्तुत्व, चेतनद्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व ये गाये । तातैं दर्शन ज्ञान चारित्र जीववस्तुका सर्वस्व है । द्रव्य गुण पर्याय ये वस्तुकी अवस्था है | अनादिनिधन वस्तु अखण्डचेतनारूप वर्ते है । परि अनादिकर्मजोगतें अशुद्ध होय रही है । सुखनिधानकौं न जानें है, तौऊ शुद्धस्वरूप है ॥

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