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॥ अनुभवप्रकाश || पान १९ ॥
परिणति आई मै हौंपणाकी मानि स्वपदका साधन है । मैंमैं परिणाम में कहे हौं । मैं मैं परिणामों ने स्वपदकी आस्तिक्यताकार स्वपदपरिणामविना ठावा योग्य स्थान न होय । कायचेष्टा नही | वचनउच्चारणा नही । मन चिन्तवन नहीं । आत्मपद मैं आपकी ममता स्वरूपविश्राम, आनन्दरूप पदमैं स्थिरता चिदानन्द, चित्परिणतिका विवेक करना | चित्परिणति चिदमैं रमै, आत्मानन्द उपजै । मनदार विवेक होय परि मन उरै रहै । मन पर है ज्ञान निजवस्तु है । सो ऐसे विचारतें दूरि रहे है । काहेतैं ? परमात्मपद गुप्त है। ताकी मन व्यक्त भावना करत संके है । काहेतैं ? परमात्मभावना करत करत परमात्मपद नजीक आवै, तब परमात्मा के तेजतैं मन पहल्यौंही मरि निवरै ( निवृत्त होय ) है | काहेतैं ? सूरिमाका तेजतें कायर विनासंग्रामही मरे । सूर्य के तेजतें अंधकार पहल्योंही नाश होय जाय, तैसें जानियौ ||
चिदानन्द भावना चित्परिणति शुद्ध होय । चित्परिणति शुद्ध भये चिदानन्द
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