Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ।। पान ४३॥ है शक्तिभी बडी, तेरी अशुद्धशक्तिभी बडी । तेरी चितवनी तेरै गरै परी । परकौं देखि है आपा भूल्या। अविद्या तेरीही फैलाई है। तूं अविद्यारूप कर्म न परि आपा न दै, है तौ किछु जडका जोर नही । तातें अपरंपार शक्ति तेरी है । भावना परकी करि भव करता भया । निजभावनाते अविनाशी अनुपम अमल अचल परमपदरूप आनन्दघन अविकारी सार सत् चिन्मय चेतन अरूपी अजरामर परमात्माकौं पावै है। तो ऐसी है भावना क्यों न करिये? इस अपने स्वरूपहीमैं सर्व उच्चत्व सकलपूज्य पद परमधाम अभिराम आनन्द अनन्तगुण स्वसंवेदरस स्वानुभव परमेश्वर ज्योतिःस्वरूप अनूप देवाहै धिदेवपणे इत्यादि सब पाइयै । तातें अपणौ पद उपादेय है। अर अवर पर हेय है। है एकदेशमात्र निजावलोकन ऐसा है । इन्द्रादिसम्पदा विकाररूप भास है। जिसकै भये है तैं अनन्त सन्त सेवन करि अपने स्वरूपका अनुभव करि भवपार भये । तातें अपने १ स्वरूपकौं सेवौ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122