Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 75
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७३ ॥ १ कल्परूप सम्यक्ता । अवरु जो एकबेर एकसमय विर्षे स्वकौं सर्व स्वकरि लखै, सर्व-है है परकों परकरि लखै तहां चारित्र परमशुद्ध है ।। तिस सम्यक्तताकौं परम सर्वथा सम्यकात्म कहिये केवल दर्शनज्ञानपर्यायविर्षे है पाइये । अवरु जिस ज्ञेयप्रति प्रयुंजै तिसहीकौं जाने औरको न जानैं । मिथ्यातीक है वा सम्यक्हृष्टिक ज्ञेयप्रयोजना ज्ञान तो एकसा है, परंतु भेद इतना ही, मिथ्याती है जेता जानै तेता अयथार्थरूप साधै । सम्यग्दृष्टि तिसही भावकौं जानें तितनँही यथार्थरूप साधै। तातें तिस सम्यग्दृष्टिक चारित्र अशुद्ध परिणामनसौं बंध होय सकता नाहीं । तिन उपयोग परणामौ. बंध आस्रव तिन अशुद्ध परिणामनकी शक्ति कीलि है राखी है । तातै निरासव निबंध है । अरु सब एक आपहीकौं आप चित्तवस्तु व्यापक ई व्याप्यताकरि प्रत्यक्ष आपही देखन लग जानन लगें, अरु ते चारित्रपरिणाम निज है उपयोगमय चित्तवस्तुविर्षे थिरीभूत शुद्ध वीतराग ममरूप प्रवते । तिनही चारित्र परि- १

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