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पदको रसास्वाद अनुभव कहिये ।
वारंवार सर्व ग्रन्थको सार अविकार अनुभव है । अनुभव शासतौ चिन्तामणि है | अनुभव अविनाशी रसकूप है । मोक्षरूप अनुभव है । तत्त्वार्थसार अनुभव है । जगत उधारण अनुभव है । अनुभवतें आन कोई उच्चपद नाहीं । तातैं अनुभव सदा स्वरूपकौ करिये । अनुभवकी महिमा अनंत है कहांलौ वताइये । आठकर्मप्रदेश परि आपणी थितिकर बैठे सर्व पुद्गलका ठार है । तिनके विपाकके उदयकरि चिदविकार भया सो विकार जीवका है । वर्गणा नोकर्म द्रव्यकर्मरूप सव पुद्गल हैं । भावजीवके हैं। एकसो अठतालीस प्रकृति वर्गणा जड वणी है । उनके विपाक उदय व्यक्तता निमित्त पाय चिदविकारभया, सो विकारका स्वांग जीवन धन्य है । इस ज्ञेय रंजक अशुद्धता भाव उस शुद्धभावकी शक्ति अशुद्ध भई तब भया है । अशुद्धपरनिमित्ततें उफदू ? मैल है । पर इसनें कीया तातें इसका है । इसका मूलभाव नाहीं, काहेतैं बादरकी
॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७८ ॥