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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ८३॥
परिणाम सर्व वस्वरूपका है । पराचरण दोय भेद है-द्रव्यपराचरण-भावपराचरण, है नोकर्म उपचार पराचरण है, परंपराकरि अनादि उपचार है ॥ वा देहका धारण सादि । है उपचार है। द्रव्यकर्मजोग अनादि उपचार है। भावकर्म अशुद्धनिश्चयनयकरि है। द्रव्यहै कर्मनोकर्मका द्रव्यपराचरण उपचार” है। भावपराचरण रागद्वेषमोह है तिसका आचरण है है है। कोई प्रश्न करै- जु रागादि जीवके भाव हैं परभाव सपरसादि हैं। रागादिककों परभाव क्यों कहे ? ताका समाधान- शुद्धनिश्चयनय रागादि जीवके नहीं, येभी पर हैं, काहेरौं भावकर्म ये हैं इनके नाश” मुक्ति है। पर हैं तो छुटै हैं । ताः परही कहिये ।। जब यह रागादिको अपने न मानेगा भवबंधपद्धति मिटैगी। तिसतै पररागादि तजि
शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्र हैं। आप जानि ग्रहै यह मुक्तीका मूल है। परिणाम जीधै है कौंधुकै जैसा हैं । तातें परवोर छोडि स्वरूपमैं लगाय निज परिणाम हैं। उत्पादव्यय- है १ ध्रुव षद्गुणी वृद्धि हानि अर्थक्रियाकारक परिणामः सधै हैं ।