Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 88
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ८६ ॥ है ये सराग थे, राग मेटि वीतराग भये। अव मैं सराग हौं। इनकीज्यौं राग मेटौं तौ वीतराग है मेरा पद मैं पावौं । निश्चयमैं हूं वीतराग हौं । उक्तं च--- है "पिच्छहु अरहो देवो पच्छरघडियो हु दरसय मग्गं" इतिवचनात् ।। इस स्थाप-३ है नाके निमित्त तिहुंकाल तिहुंलोकमैं भव्यजीव धरम साधै हैं । तातें स्थापना परम । है पूज्य है। द्रव्यजिन द्रव्यजीव सोहू भाव पूज्य हैं। तातें पूज्य भावि नय । अथवा है तीन कल्याण तक द्रव्याजिन हैं। सो पूज्य हैं । भावजिन समवसरणमण्डित अनंत है १ चतुष्टय युक्त भव्यनकौं सारै। दिव्यध्वनि उपदेश देयकरि साक्षात मोक्षमार्ग वर्षा करै है है परमातमा भावजिन कहिये ॥ आरौं सिद्धदेवका वर्णन कीजिये हैं ॥ सिद्ध निराकार है है परमातमा है । अनंतगुणरूप भये अपने अनंतसुखकौं गुणनिकरि पर्यायतें वेदि, द्रव्यहै गुणकौं अरु भोगवै हैं । लोकशिखर परि तिष्ठै हैं । षड्गुणी वृद्धि हानि अर्थ पर्याय है किंचून चरमदेहतै प्रदेशनिकी आकृति आकार व्यंजनपर्याय ।। उक्तं च---

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