Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 78
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७६ ॥ कल्पदशा दुःख है । तृष्णातप्तकरि चंचल है । पुण्यपापरूप कलाय है । उद्वेगता है । असंतोषरूप है । ऐसें ऐसें विलापरूप है | चारित्र परिणाम दोन्यौतै अवस्था आपविषै देखी है । तिसतें भला यह जुं तू स्वानुभवरूप रहनेका उद्यम राख्या करु | यह हमारा वचन व्यवहारकरि उपदेशकथन है । जेती जेती विशुद्धता थिरता गुणस्थान माफिक बढी तेता तेता सुख बढ्या | बारमैंलगु कषाय घटनेत थिरता बढी । मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमतें स्वसंवेदन रस बढ्यौ । स्वसंवेदन थिरता करि उपज्यो रसास्वाद स्वानुभव सो अनन्तसुख मूल है || सो अनुभव धाराधरजगै दुःख दावानल रंच न रहतु है । स्वानुभव भववासघटा भानवेक परम प्रचण्ड पवन मुनिजन कहतु है । अनुभव सुधापानकरि भव्य अमर अनेक भए । परमपूज्यपदकौं अनुभवही करे है । सब वेदपुराण याविनु निरर्थक है । स्मृति विस्मृति है । शास्त्रार्थ व्यर्थ है । पूजा मोहभजन है । अनुभवविना निर्वि

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