Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 74
________________ ॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ७२॥ है होय, तिस होनेसों तिस परिणामभेदकौं मन नाम कह्या । देखि संत (?) अवरु इनहै हिकौं एकज्ञानका नाम लेइ कथन करूं हौं, तिस ज्ञानकथनैंकरि दर्शनादि सवगुण है है आय गए । इन मनइन्द्रीभेदके ज्ञानकी पर्यायका नाम मतिसंज्ञा कहिये मिश्रभेदज्ञानहै करि अर्थस्यौं अर्थान्तर विशेप जानै तिस जाननैंकौं श्रुतसंज्ञा कहिये। दोन्यों ज्ञान- है पर्याय कुरूप सम्यग्रूप कहिये मिथ्याती मतिश्रुतरूप जानना है, तिस जाननै विर्षे है । स्व-परव्यापक अव्यापककी जाति नाहीं । तिस ज्ञेयकों आप लखै अथवा लखताही है हैं नाहीं । मिथ्यातीक जाननमैं कुरूपता है । सम्यग्दृष्टि परका जाने हैं। स्वकौं स्व जाने । है है । चारित्रमै परकौं निजरूप अवलंबै है मिथ्याती। सम्यग्दृष्टि निजकौं निज अव-है लंबै है । सम्यक्ता सविकल्प निर्विकल्परूपसौं दोय प्रकार है । जघन्यज्ञानीकें जब तिस है है परशेयकौं अव्यापकपररूपत्व जानि आपकौं जाननरूप व्यापक जानै सो तो सविकल्प-है है सम्यक्ता । अवरु जु आप जाननरूप आपकौंही व्याप्यव्यापक जान्या करै सो निर्वि

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