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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ७० ॥
अब निजपरिणतियासौं अतीन्द्रिय भोग भोगवो, जहां सहज अविनाशीरस वर्षे है । अरूपीक मैं पद्मराग मणि कल्पि आनन्द झूठेही मानौ हौं । ऐसें परमैं निजभाव कल्पा सो झूठेही हौस पूरी करो, सो न होय । आकाशमें देव एक, ताके करमें चिंतामणि, ताको प्रतिविम्व अपने वासन के जलमें देख्यौ, मनमें विचारि मेरै चिन्तामणि है, ताके भरोसौ विराने लाखौ देने कीये तौ कहा सिद्धि है ? झूठ कल्पना तुमहीकौ दुखदाई है । साचौ चिन्तामणि घरमैं ताकौ न देखौ ! अरु प्रतिविम्वमैं हाथि न परै । वहुत खेद करो, सो कहा बढाई ? अब अपनो साचो अखंड पद देखो । ब्रह्मसरोवर आनन्दसुधारसकरि पूर्ण, जाको सुधारस पीवत अमर होय, सो रस पीवनो ॥
॥ अथ अनुभववर्णनम् ॥
पौगलिक कर्म ही कर पांच इंद्रिय छठे मनरूप वन्या सञ्ज्ञी देह, तिस देहविषै तिसप्रमाण तिष्ठया जु है जीवद्रव्यभी इंद्रिय मन सञ्ज्ञा नाम पावै । भावइन्द्रिय भावमन