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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४८॥
नीकै निहारो। इस शरीरमन्दिरमैं यह चेतनदीपक सासता है । मन्दिर तौ छूटै इ है परि सासता रतनदीप ज्यौंका त्यौं रहै । व्यवहारमें तुम अनेक स्वांग नटकीज्यौं घरे। है है नट ज्यौंका त्यौं रहै । वह स्पष्टभाव कर्मको है । तौऊ कमलिनीपतकीनाई कर्मसौं न । है बंधै, न स्पशैं । अन्य अन्य भाव मांटी धरैह एक है । तैसे अन्य अन्य पर्याय धरैहू । है एक है । समुद्र तरङ्गकरि वृद्धि हानि करै, समुद्रत्वकरि निश्चल है, विभावकरि वृद्धि हानि । । करै। वस्तु निज अचल है । सोनों वान भेद परि अभेद, यो नानाभेद कर्मते, परि वस्तु । है अभेद । फटिकमणि हरी लालपुडीतैं भासै , स्वभाव श्वेत है। परसौं पर, निज चेतनामैं पर
नही । षड्भाव ऊपरि ऊपरि रहै । जलपरि सिवालकीनाई गुप्त शुद्धशक्ति तेरी चिदानन्द है है व्यक्त करि भाय ज्यों व्यक्त व्है । तूं अविनाशीरसका सागर । पररस कहा मीठा देख्या? है है जाके निमित्तै संसारकी घुमेरी भई, ताहीकौं भला जानि सेवै है। जैसैं मद पीवनहारा मद है हैं पीवता जाय, दुःख पावता जाय, अधिक घुमेरीमैं भला जानि जानि सेवैः तैसें भूला है। है