Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 53
________________ ॥ अनुभवप्रकाश। पान ५१ ॥ इस आतमाकों परपद लेना मुसकिल है। काहेरौं अनादि परपद लेता फिरै है । परि है है पररूप न भया, चेतनही रह्या । अरु चेतनापद आतमाका है, इसकौं न भी जान है, है है भूल्या फिरै है, तौभी वाकी रहणी निश्चयकरि याहीमैं , यातें मुसकिल नाहीं, अपना है । स्वरूपही है । भ्रमका पडदा आपहीनें अनादिका कीया है। तातें ना भासै है, आप है है आपकौं । परि आप आपकौं तजि बाहरि न गया ॥ है जैसे नटवे. पशुका वेष धन्य तौ वह नर नरपणाकौं तजि वा न गया। पशु है १वेष न धरै तौ नरही है । भ्रम” परममत्व न करै, तौ देहका स्वांग न धरै, तो चिदा-है है नन्द जैसैका तैसा रहै । जैसैं एक डावीमें रतन वाका कछु विगया नाहीं, गुपत पुडत है है दूरि करि, कालै तौ व्यक्त है । तेसैं शरीरमैं छिप्या आतमा है, याका कछु न विगया है गुपत है, कर्मरहित भये प्रगट है। गुपत प्रगट अवस्थाभेद है। दोन्यौं अवस्थामैं स्वरूप जैसैका तैसा है, ऐसा श्रद्धाभाव सुखका मूल है । जाकी दृष्टि पदार्थशुद्धिपरि

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