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॥ अनुभवप्रकाश || पान ५६ ॥
तहां साक्षात्परमात्मरूप केवल हवना साध्य है । जहां पौगलिककर्म खिरणा साधक है, तहां चिदिकारविलय हवना साध्य है |
जहां परमाणुमात्रपरिग्रहप्रपंच साधक है, तहां ममताभाव साध्य है । जहां मिथ्यादृष्टि हवना साधक है, तहां 'संसारभ्रमण साध्य है। जहां सम्यग्दृष्टि हवना साधक है, तहां मोक्षपद होना साध्य है । जहां काललन्धि साधक है, तहां द्रव्यकों तैसाही भाव हवना साध्य है । हम स्वभावसाधनकर अपने स्वरूपकों साध्य कीया है | यह साध्यसाधकभाव जानि सहजही साध्य सधै है || विशेष इनका कीजिये है । अहं नरः । अहं देवः । अहं नारकः । अहं तिर्यक् | ये शरीर मे रे; परमैं निजभाव परकौं आपा मानना, स्वरूपतैं बाहरि परपदार्थ मैं परिणाम तन्मय करना रागभावतें रंजकताकरि परके स्वरूपकों आप प्रतीतिकरि जानियै । ऐसा मिथ्यात्व दूजा भेद मिथ्यात्वका । ऐसें मिथ्यात्वक साधै है । सो कहिये हैं |