Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 47
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ४५॥ रहौ । निरन्तर यह यत्न करौ । ऐसा कहाव तौ बारबार बालकहू न करावै । तुम अन- ३ है न्तज्ञानके धनी होयकरि ऐसी भूलि धरौ, सो बडा अचिरज आवै है। सो अचिरजकी है है बात न करियै । वा महाजड शरीरमैं आपा मानै मोटी हानि है। आपकी जानिमें है है सुखसमुद्रकू पाय अविनाशिपुरीका राजा होय, अनन्तचैतन्यशक्तिराजधानीका है । विलासी होय है । परमैं आपा मानि तूं ऐसे दुःख पावै, जैसे कोई मडेको वस्त्र आभू-३ १ षणादि करै, मानै मै पहरै है! तो जीवता झूठही आपका मानै है। ऐसे देह जड है ।। है । याके भोग तूं आप मानि झूठही काहेकौ जडकी क्रिया आपकी मानै ? जैसैं साँप , है कास्कौं काटे, काहूकौं विष चढे, तौ अचिरज मानियै । जड खाय पहरै, स्नानचोवादि । (तैलमर्दन) क्रिया करै, तुम कहो हम खाया, हम भोग कीया, परके स्वामी भये । सो हैं परस्वामीभी यौँ न माने । जैसे राजा किङ्करनका स्वामी है । उनके धाये (भोजनसे तृप्त है १ हुये) यौं न कहै धाया हौं । अर तुम देखो, तुमारी ऐसी चाल तुमहीकौं दुःखदायी है ॥ है

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