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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ३७ ॥ गते अनुभवी जीवनिके निमित्ततें निजपरिणति स्वरूपकी होय, विषम मोह मिटै, है १ परमानन्द भेटै । स्वरूप पायवेका राह संतोंने सोहिला ( सरल ) कीया है ॥
चौरासी लाख योनि सरायका फिरनहारा कबहू कहूं थिररूप निवास न कीया।। है जबतक परमज्योति अपनें शिवघरकौं न पहुंचे, तबतक कार्यभी न सरै । कहा भया है है जो तपी जपी ब्रह्मचारी यति आदि बहुत भेष धरै, तो तातें निज अमृतके पीवनेते है
अनादि भ्रम खेद मिटै । अजर अमर होय तत्त्वसुधा सेवनेका मार्ग कहा ? सो है हैं कहिये हैं | है अपने चिदानन्दस्वरूपकौं अवलोकि अनुभव करि। कैसे ? सकल अविद्यार्ते मुक्ति १ तत्त्वकी कौतूहली होय । निजानन्द केलि कलाकरि स्वपदकौं देखि । अनातमका सङ्ग
फिरि न रहै अनादिमोहके वशते । निज हितअहितमै भेदज्ञानतें ज्ञानचेतनका अनुभव हैं करि अनादि अखण्ड ब्रह्मपदका विलास तेरै ज्ञानकटाक्षम है।