Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 41
________________ ॥अनुभवप्रकाश ॥ शान ३९ ॥ है च्यारि वेद भेद लहि, गहि स्वरूप सुखरूप तेरी भावनामै अविनाशी रस चोवा चूवै है है । सो भावनाकरि भ्रमभाव मेट, तेरी भावनाही झूठेही भव बनाया है । ऐसा बदफैल है ई स्वभाव कल्लोलके प्रगट होतेही मिटै है ॥ देखि, तूं चेतन है । जड अजान है। तें अजानमैं आपा मान्या, अशुद्ध भया, तेरी लैर अजान न परै है। तूं अपने पदते ईधैंकों (इधरको) मति आवै । तेरा जड कछु पल्ला न पकरै है । अनाहिक (व्यर्थही) बिरानी वस्तुकौं अपनी करि करि झूठी हौंस करै । यह हमें भोगसुख भया, हम सुखी हैं। झूठी भरम कल्पना मानि मोद करै है। है किछुभी सावधानीका अंश नाही । यह कोई अचिरज है, तिहूं लोकका नाथ है हैं होय अपने पूज्यपदकौं भूलै । नीच पदमैं आपा मानि विकल होय व्याकुलरूप है १ भया डाले है॥ है जैसे कोई एक इन्द्रजालका नगरमै रहै । तहां इन्द्रजालीके वश हुवा इन्द्रजा- है

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