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॥ अनुभवप्रकाश || पान २८ ॥
जैसें काहूको जन्म भयो, जन्मतेंही आँखि परि, चामडीको लपेटो चल्यो आयो माहिसूं आँखिको प्रकाश ज्योंको त्यों बाह्य चर्म आवरणसौ आपको न दरसे । जब कोऊ तबीब मिल्यो, तानें कही, याकै मांहि प्रकाश ज्योतीरूप आखि सारी है । वा जतनकरि चर्मको लपेटो दूरि कीयो, तब शरीर आपकों आपही देख्यौ, औरभी दरसै लाग्यौ । याप्रकारि अनादि ज्ञानदर्शन नैन मुद्रित भये चले आये आप स्वरूप न देख्यौ । जब श्रीगुरु तबीब (नेत्रवैद्य) मिले, तब ज्ञानावरण दूरि करणको उपाय बतावतही याकै श्रद्धान करि दूरिही भयो । तब आपणौ अखण्ड ज्योतिःस्वरूप पद आप देख्यो, तब अनन्तसुखी भयो |
जेवरी में सांप नही, सीपमैं रूपो नही, भाडली मैं ( मृगतृष्णा ) जल नही, काचमन्दिरमैं दूजो स्वान नही, मृगबारें बास नही, नलनीको सूवो काहूनें पकन्य नहि, वानराकी मूठी काहू पकरी नहि, सिंह कूवामैं दूजो नहीं, ऐसैं कोऊ