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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ३३ ॥
है स्वआचरण गुण था, जेतीक परवस्तु है तिसी परकौं स्वआचरणकरि कीया करै, है परविर्षे तिठ्या करै, परहीकौं ग्रह्या करै, अपनी चारित्रगुण सब शक्ति परविर्षे लगि है है रही है, यौँ जीवका स्वचारित्रगुण विकाररूप परिणमै है ॥
अवर इस जीवका सर्व स्वरूप परिणमनेका बलरूप सर्व वीर्यगुण था, सो निर्वल है रूप होय परिणम्या स्वरूपपरिणमनेका बल रहि गया निर्वल भया परिणम्या। याकरि है जीवका वीर्यगुण विकाररूप परिणम्या ।। अवर इस जीवका आत्मस्वरूप रस जो परमा-है १ नन्द भोगगुण था, सो परपुद्गलका कर्मत्व व्यक्त साता असाता पुण्यपापरूप उदय है है परपरिणामके बहुभांति विकार चिद्विकार परिणामहीका रस भोगव्या करै रस लीया है है करै, तिस परमानन्द गुणकी सर्वशक्ति परपरिणामहीका स्वाद स्वाद्या करै । सो परस्वाद । । परम दुःखरूप । यौंकरि जीवका परमानन्दगुण दुःखविकाररूप परणम्या ॥ यौहीकरि है है इस जीवके अवर गुण ज्योज्यौं विकारी भये हैं, त्योत्यौं ग्रन्थान्तर जानि लेने ॥