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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ३४ ॥ इस जीवके सर्व गुणहीके विकारको चिदिकार नाम सङ्क्षपसू कहना ॥ गुण है है गुणकी अनन्ती शक्ति कही सत्ताकी है शक्ति अनन्तगुणमैं विस्तरी । सब गुणकी है है आस्तिक्यता सत्ता” भई । सत्ता. सासता सबकौं राख्या। अनन्तचेतनाका स्वरूप है १ असत्ता होता तो चिच्छक्तिरूप चेतना अविनाशी महिमा न रहती। सच्चिदानन्द है है विना अफल भये किस कामके ? तातें सच्चिदानन्दरूपकरि आत्मा प्रधान है । अरूपी है है आत्मप्रदेशमैं सर्वदर्शनी सर्वज्ञत्व स्वच्छत्व आदि अनन्तशक्तिका प्रकाश है , ते उपयो१ गके धारी अविकारी कर्मत्वकरि आवरै, सङ्कोचविस्तार शरीराकार भये । आत्मा है है आकाशवत् कैसे सङ्कोचविस्तार धरै ? पुद्गल संकुचै विस्तरै, तो काष्ठ पाषाण घटते है है बढते होय । सो चेतनाविना न बढे । चेतनही वढे घटै, तो सिद्धके प्रदेशका विस्तार है । होय के घटि जाय, सोभी नाही। जडचेतन दोन्यौं मिले संकोच विस्तार है। परदे-है १ शमैं सब गुण कहे हैं । परि संसार अवस्था” मोक्षमार्गकी चढि न भई । तहां सम्यग्द-है
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