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. . ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान-३१॥
. . . होय होय चौरासीका स्वांग धरि नांचे है। ममत्व मेटि सहजपदकों भेटि थिर रहैं, तो · नांचना न होय । चंचलता मेटै चिदानन्द उधरै है, ज्ञानदृष्टि खुलै है । नैक स्वरूपमैं हैं ... सुथिर भये गतिभ्रमण मिटै है । तात जे स्वरूपमैं सदा स्थिर रहैं, ते धन्य हैं।
अपनी अवलोकनिमें अखण्ड रसधारा वर्षे है, ऐसा जानि, निज जानि, पर है - मेटि, 'यह मैं सुखनिधान ज्योतिःस्वरूप परमप्रकाशरूप अनुपपदरूप स्वरूप है इस आकाशवत् अविकारपदमैं चिदिकार भया, परसंयोगते । इहां तौ परके हैं . अवकाश न था । कैसैं अनादि ठहया? तहां कहिये हैं ॥ नकखानमैं कनक चिरहीका गुप्त है । तैसें आत्मा कर्ममें गुप्त अनादिहीका है। ६ अनादित अशुद्ध उपयोग अशुद्धता लगी है, सो देखि। कैसे लगी है,
ध मान माया लोभ इन्द्रिय मन वचन देह गति कर्म नोकर्म धर्म अधर्मः।