Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 28
________________ __. . . . . ॥ अनुभवप्रकाश ॥. पान २६ ॥ आपहू जाने हैं। अविद्याको आवरण है ताकरि झूठको सांच मानि रह्यो है। त्रिंबक हैं है. (तीन जगहतें वांकी ऐसी रस्सी) जेवरीमें सर्प त्रिकाल नाही, तैसें ब्रह्ममै अविद्या है नाहीं । सो सारे समुद्रके जलसैं धोयेहू देह अपावन है । ताकौ पावन मानि रह्यौ है ।। है. ऐसी पिठौंही पकरी है । जोरावरी ठीकरीको रुपयो चलावै सो न चालै । अपनी भूलिए हैन तजै तो अपनी हांसी खलकमैं आप करावै । के देखो अनन्तज्ञानको धनी भूलि है हैं दुःख पावै है। हांसीके भये जन सरमिंदो होय । फेरि हांसीको काम न करै। याकी है । अनादिकी जगतमैं हांसी भई है । लाज न पकरै है । फेरि फेरि वाही झूठी रीतीकौं पकरै । है. है । जाकी बातहूके कीये अनुपम आनन्द होय, ऐसो अपनो पद है। ताकौ तौ न ग्रहै। है है परवस्तुकी ओर देखतही चौरासीको बंदीखानो है, ताकौं बहोत रुचिसेती सेवै है। ऐसी है ३: हठरीति विपरीति-रूपको अनुप-मानि मानि हर्ष धरै है। जैसैं साँपको हार जानि हाथ है घालो तौ दुःख होयही होय तैसें रुचिसेती. परसेवनतें.संसारदुःख होयही होय ॥

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