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॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान २४॥ । १ जानपणा, तहांतहां मैं ऐसा दृढभाव सम्यक्त्व है । सो सुगम है, विषम मानि रह्या है है है। मोहमद वायो ज्ञान अमृत पीय उतरि ब्रह्मपदकौं सँभारि, डारि भवखेद, भेद है है पाय निजसौं, अभेद आपपदकौं पिछानि, त्यागि परवाणी, जाणि चिदानन्द, मोह है मानि भानिकै, गुणको ग्राम अभिराम सुखधामरूप सोही है स्वरूप । सोही भावमोइक्षको उपाय उपेयको साथै, शुद्ध आतम आराधै। योही शिवपंथ निग्रन्थ वहू साधि है है साधि, समाधिकौ पाय, परमपदकौं पहुंचै । अपना चेतनाप्रकाश मोहविकारकौं पाय,
मैला भया। भेदज्ञान जडचेतनका निखारा करै । ताकौं उरमें धरिकरि निजज्ञानका है १ अभ्यास वारंवार सार अविकार अपना अखण्डरूप जानि अनुभव उर आनि महामोह है है हठ भानि स्वरूपरस अपने स्वभावमैं है । तिस स्वभावकों निज उपयोगमैं ठावा करै ।। १ स्वरूपकी उपयोगशक्ति कर्ममें गुप्त भई तो कहा शक्तिको अभाव मानिये ।। है जैसे काहूको पुत्र घरमें है, बाजारमैं काहू. बूझ्यो, तौ कहै हमारे पुत्र है । है