Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 19
________________ ॥ अनुभवप्रकाश || पान १७ ॥ -गतिकर तौ प्रत्यक्ष है | ज्ञान अवधिमनःपर्ययके जानवेतैं एकदेशप्रत्यक्ष । काहेतैं सर्वावधिकरि सर्व वर्गणा परमाणुमात्र देखे, तातैं एकदेशप्रत्यक्ष | मनःपर्ययहू परमनकी जाने, तातें एकदेशप्रत्यक्ष है । केवल सर्वप्रत्यक्ष है । अपना जानना ज्ञानमात्र वस्तु मैं जो प्रतीति भई, तातैं सम्यक् नाम पाया । ज्ञानमात्र वस्तु तौ केवलज्ञान भये शुद्ध, जहाँतक केवल नही तहांतक गुपत, केवलज्ञानमात्र वस्तुकी प्रतीति प्रत्यक्ष करिकरि स्वसंवेदन बढा है | जघन्यज्ञानी कैसे प्रतीति करे ? सो कहिये हैं | मेरा दर्शनज्ञानका प्रकाशप्रदेश मेरे तैं उठे है । जानपना मेरा मै हौं । ऐसी प्रतीति करता आनन्द होय सो निर्विकल्पसुख है। ज्ञान उपयोग आवरण में गुप्त है । जानिमैं आवरण नाहीं । काहेतैं ? जेता अंश आवरण गया, तेता ज्ञान भया, तातैं ज्ञान आवरणतै न्यारा है, सो अपना स्वभाव है । जेता ज्ञान प्रगट्या तेता अपना स्वभाव खुल्या, सो आपा है | इतना

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