Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान १६ ॥ भया । दूजा पडदा दूरि भया, तब चढता प्रकाश भया। तीजा गये चढता भया । चउथा गये अधिक चढना भया । ऐसें ज्ञानावरणके पांच पडदे हैं । मतिज्ञानावरण गये हैं स्वरूपका मनन कीया ॥ अनादि परमनन था, सो मिट्या। अनन्तर ऐसी प्रतीति । आई, जैसे कोई पुरुष दरिद्र है , करजको स्वौका है, उसकै चिन्तामणि है, तब काहूनें है हैं कह्या, इस चिन्तामणिके प्रभावतें निधि विस्तरि रहा है, काहूकौं फल दीया था, सो है है अब तुमहु निधितौ ल्यौ । साक्षात्कार भये सब फल पावहुगे । प्रतीतिमैं चिंतामणि ई पायेकासा हर्ष भया है। ऐसें मतिज्ञानी स्वरूपका प्रभाव एकदेशहीमें ऐसी जागा है केवलज्ञानकी शुद्धत्वप्रतीतिद्वार आया सो अशुद्धत्व अंशहु अपना न कल्पै है। इ स्वसंवेदन मतिज्ञानकरि भया है। ज्ञानप्रकाश अपना है । ऐसें श्रुतमैं विचारै, मैं है है मनन कीया ॥ इ सो कैसा हौं ? ज्ञानरूप हौं, आनन्दरूप हौं । ऐसें व्यारि ज्ञानमैं स्वसंवेदनपरि

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122