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॥अनुभवप्रकाश ॥ पान १४ ॥ १ भावनागम्य है । यह मेरा ज्योतिःस्वरूपका प्रकाश प्रगट इस घटमैं प्रकाशता है। है छिप्या नही, गोप्य कैसा मानौं? छती वस्तुकौं अछती कैसे करौ ? छती अछती न है है होती है । पी, झूठेही छतीकौं अती मानी थी। तिसका अनादि दुःख फल भया । १ था । शरीरकों आपा कैसे मानिये ? यह तो रक्तवीर्यतै भया सात धात जड विजातीय है । विनश्वर पर, सो मेरी चेतना यह नाही । ज्ञान वर्ण वर्गणा विजातीय स्वरूपकौं वर्ण है है अचेत बंधक विनश्वर रसविपाकहीन है, सो मेरी नाही । विभाव स्वभाव मंलिन करै । १ कर्मउदयतें भया, मेरा नाहीं । मेरा चेतनापद में पाया । ज्ञानलक्षणते लक्ष्य पिछानि है है स्वरूपश्रद्धा” आनन्दकन्दकी केलींकरि सुखी हौं । सो आनन्दकन्दकी केली स्वरूप- १ है श्रद्धा कैसे होय ? सो कहिये है ॥ अनन्तचैतन्यचिन्हकौं लिये अखण्डितगुणका पुञ्ज है है पर्यायका धारी द्रव्य ज्ञानादिगुणपरिणति पर्यायअवस्थारूप वस्तुका निश्चय भया । है ज्ञान जाननमात्र, दर्शन देखवेमाल , सत्ता अस्तिमात्र, सो वीर्य वस्तुनिष्पन्न