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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 में विभिन्न विचारों के बीच टकराव और मतभिन्नता को दुराग्रहपूर्वक अस्वीकार न कर उसे अन्य पक्षों और संदों की अपेक्षा से विचार योग्य सामने या उस पक्ष का स्वीकार, जो तत्-तत् दार्शनिकों को तो ज्ञात हो पर दूसरे को नहीं, अनेकांतवाद का मुख्य पहलू है। अनेकांत की भाषिक अभिव्यक्ति के लिए जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद की खोज की ओर उसकी पद्धति के लिए नय की। अनेकांतवाद का कार्य विभिन्न दर्शनों के तत्वों में से सापेक्षिक सत्य को खोज उनके बीच के विरोध को समाप्त करना बताया जाता है, हालांकि ऐसा संभव तो नहीं हुआ। यद्यपि इस कार्य-व्यापार के कारण ही अनेकांतवाद को सिद्धान्त की अपेक्षा व्यावहारिक पद्धति के रूप में देखा जाता है। एक दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में अनेकांतवाद की स्थापना चौथी शताब्दी में सिद्धसेन दिवाकर ने की थी। अपने सन्मति तर्क प्रकरण में उन्होंने अनेकांत को व्याख्यायित करते हुए इसकी व्यावहारिक महत्ता को इन शब्दों में प्रतिपादित किया है :
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहइ। तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स।
- सन्मति-तर्क-प्रकरण, ३/७० अर्थात् जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वहण सर्वथा संभव नहीं है, उस संसार का एकमात्र गुरु अनेकांतवाद को नमस्कार है।
एक संपूर्ण और मूर्त सिद्धांत के तौर पर अनेकान्तवाद को जैन दार्शनिकों ने चौथी शताब्दी और उसके बाद स्थापित किया, लेकिन इसका बीज उतना ही प्राचीन है जितना दार्शनिक साहित्य। भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के नासदीय सुक्त' में परम तत्व के सत् या असत् होने के संबन्ध में न केवल जिज्ञासा है बल्कि अंत में ऋषि कहता है कि उस परम सत्ता को न तो सत् कहा जा सकता है और असत्। इस प्रकार सत्ता की बहुधर्मिता और उसमें परस्पर विरोधी गुणों की उपस्थिति अपेक्षा भेद से वेदकाल में भी स्वीकृत हो चुकी थी। ऋग्वेद में ही परस्पर विरोध मान्यताओं में निहित सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए कहा गया है- एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति। अर्थात् सत् एक है और विद्वान उसे अनेक दृष्टि से व्याख्यापित करते हैं। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर परमसत्ता के बहुआयामी