________________ अप्रमत्त रहने के लिए साधक विषयों से उपरत रहे, पाहार पर संयम रखे / दष्टिसंयम, मन, वचन और काया का संयम एवं चिन्तन की पवित्रता अपेक्षित है / बहत व्यापक रूप से अप्रमत्त रहने के संबंध में चिन्तन हुआ है। प्रस्तुत अध्ययन में पाई हुई कुछ गाथाओं की तुलना धम्मपद, सुत्तनिपात, श्वेताश्वतर उपनिषद् और गीता आदि के साथ की जा सकती है: "न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणनो समं वा / एक्को वि पावाई विवज्जयन्तो, विहरेज्ज कार्मसु प्रसज्जमाणो " (उत्तमध्ययन-3215) तुलना कीजिए-- "सचे लभेथ निपकं सहायं, सद्धि चरं साधुविहारिधी / अभिभूय्य सब्वानि परिस्सयानि, चरेग्य तेनत्तमनो सतीमा / / नो च लभेथ निपकं सहाय, सद्धि चरं साधुविहारिधीरं / राजाव रट्ठं विजितं पहाय, एको रे मातंगराव नागो। एकस्य चरितं से य्यो, नत्थि बाले सहायता / एको चरे न च पापानि कायिरा। अप्पोस्सुक्को मातंगराव नागो।। (धम्मपद, 23 / 9,10,11) "अद्धा पसंसाम सहायसंपदं सेट्ठा ममा सेवितब्वा महाया। एते अलद्धा अनवज्जभोजी, एगो चरे खग्गविसाणकप्पो / " (सुत्तनिपात, उर. 3613) "जहा य किपागफसा मणोरमा, रसेण लण्णण य भज्जमाणा / ते खुद्द जीविय पच्चमाणा, एप्रोवमा कामगुण विवागे // " (उत्तराध्ययन-३।२०) तुलना कीजिए "त्रयी धर्ममधर्मार्थ किपाकफलस निभम / नास्ति तात ! सुखं किञ्चिदत्र दुःखशताकुले // " (शांकरभाष्य, श्वेता. उप., पृष्ठ-२३.) "एविन्दियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्ख, न वीयरागस्म करेन्ति किनि / / " (उत्तराध्ययन-३२॥१००) तुलदा कीजिए "रागद्वेषवियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् / आत्मवश्यविधेयात्मा, प्रसादमधिगच्छति // " (गीता-२६४.) कमः तेतीसवें अध्ययन में कर्म-प्रकृतियों का निरूपण होने के कारण "कर्मप्रकृति' के नाम से यह अध्ययन विश्रत है। कर्म भारतीय दर्शन का चिर परिचित शब्द है। जैन, बौद्ध और वैदिक सभी परम्परामों ने कर्म को स्वीकार किया है। कर्म को ही वेदान्ती 'अविद्या', बौद्ध 'वासना', सांख्य 'क्लेश', और न्याय-वैशेषिक 'अदष्ट' [82] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org