Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र सूत्र-१७५
यह हुआ जात्यार्यों का निरूपण । कुलार्य छह प्रकार के हैं । उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात और कौरव्य। कार्य अनेक प्रकारके हैं। दोषिक, सौत्रिक, कार्पासिक, सूत्रवैतालिक, भाण्डवैतालिक, कौलालिक और नरवाहनिक । इसी प्रकार के अन्य जितने भी हों, उन्हें कर्मार्य समझना ।
शिल्पार्य अनेक प्रकार के हैं । तुन्नाक, दर्जी, तन्तुवाय, पट्टकार, दृतिकार, वरण, छर्विक, काष्ठपादुकाकार, मुंजपादुकाकार, छद्मकार, बाह्यकार, पुस्तकार, लेप्यकार, चित्रकार, शंखकार, दन्तकार, भाण्डकार, जिह्वाकार, शैल्यकार, और कोडिकार, इसी प्रकार के अन्य जितने भी हैं, उन सबको शिल्पार्य समझना।
___ भाषार्य वे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं, और जहाँ भी ब्राह्मी लिपि प्रचलित है । ब्राह्मी लिपि अठारह प्रकार है । ब्राह्मी, यवनानी, दोषापुरिका, खरौष्ट्री, पुष्करशारिका, भोगवतिका, प्रहरादिका, अन्ताक्षरिका, अक्षरपुष्टिका, वैनयिका, निहविका, अंकलिपि, गणितलिपि, गन्धर्वलिपि, आदर्शलिपि, माहेश्वरी, तामिलि और पौलिन्दी ।
ज्ञानार्य पाँच प्रकार के हैं | आभिनिबोधिकज्ञानार्य, श्रुतज्ञानार्य, अवधिज्ञानार्य, मनःपर्यवज्ञानार्य और केवलज्ञानार्य । दर्शनार्य दो प्रकार के हैं। सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शनार्य । सरागदर्शनार्य दस प्रकार के हैं। सूत्र - १७६
निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारूचि, संक्षेपरुचि, और धर्मरुचि। सूत्र-१७७,१७८
जो व्यक्ति स्वमति से जीवादि नव तत्त्वों को तथ्य रूप से जान कर उन पर रुचि करता है, वह निसर्ग रुचि। जो व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों पर स्वयमेव चार प्रकार से श्रद्धान् करता है, तथा वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं, उसे निसर्गरुचि जानना । सूत्र-१७९
जो व्यक्ति छद्मस्थ या जिन किसी दूसरेके द्वारा उपदिष्ट इन्हीं पदार्थों पर श्रद्धा करता है, वो उपदेशरुचि । सूत्र-१८०
जो हेतु को नहीं जानता हआ; केवल जिनाज्ञा से प्रवचन पर रुचि रखता है, तथा यह समझता है कि जिनोपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं; वह आज्ञारुचि है। सूत्र-१८१
जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता हुआ श्रुत के द्वारा ही सम्यक्त्व का अवगाहन करता है, उसे सूत्ररुचि जानना। सूत्र-१८२
जल में पड़ा तेल के बिन्द के फैलने के समान जिसके लिए सूत्र का एक पद, अनेक पदों के रूप में फैल जाता है, उसे बीजरुचि समझना । सूत्र-१८३
जिसने ग्यारह अंगों, प्रकीर्णकों को तथा बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग तक का श्रुतज्ञान, अर्थरूप में उपलब्ध कर लिया है, वह अभिगमरुचि। सूत्र-१८४
जिसने द्रव्यों के सर्वभावों को, समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नयविधियों से उपलब्ध कर लिया, उसे विस्ताररुचि समझना।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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