Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र पद-३४-प्रविचारणा सूत्र-५८४,५८५
इस पदमें सात अधिकार हैं। -अनन्तरागत आहार, आहाराभोगता आदि, पुदगलों को नहीं जानते, अध्यवसान । तथा- सम्यक्त्व का अभिगम, काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित परिचारणा और अन्त में इनका अल्पबहुत्व।
सूत्र-५८६
भगवन् ! क्या नारक अनन्ताहारक होते हैं ?, उस के पश्चात् शरीर की निष्पत्ति होती है ? फिर पर्यादानता, तदनन्तर परिणामना होती है ? तत्पश्चात् परिचारणा करते हैं ? और तब विकुर्वणा करते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या असुरकुमार अनन्तराहारक होते हैं यावत् परिचारणा करते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । इसी प्रकार नेतकमारपर्यन्त कहना । भगवन ! क्या पथ्वीकायिक अनन्तराहारक यावत विकर्वणा करते हैं? हाँ. गौतम! सही
शेष ये की वे विकुर्वणा नहीं करते। इसी प्रकार चतुरिन्द्रियपर्यन्त कहना। विशेष ये कि वायुकायिक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों को नैरयिकों समान हैं । वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों, असुरकुमारों समान जानना। सूत्र-५८७
भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग-निर्वर्तित होता है या अनाभोग-निर्वर्तित ? गौतम ! दोनों होता है । इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिकों तक कहना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार अनाभोगनिर्वर्तित ही होता है। भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूपमें ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते हैं और उन का आहार करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किन्तु आहार करते हैं ? गौतम ! वे न जानते हैं और न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय तक कहना । चतुरिन्द्रिय जीव? गौतम! कईं चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को नहीं जानते, किन्तु देखते हैं, आहार करते हैं, कई चतुरिन्द्रिय न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं।
पंचेन्द्रियतिर्यंचों में पूर्ववत् प्रश्न | गौतम ! कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यंच जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं, कतिपय जानते हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं, कतिपय जानते नहीं, देखते हैं और आहार करते हैं, कईं पंचेन्द्रियतिर्यंच न तो जानते हैं और न ही देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं । इसी प्रकार मनुष्यों में भी जानना । वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों को नैरयिकों के समान समझना । वैमानिक देव में पूर्ववत् प्रश्न-गौतम ! कई वैमानिक जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं और कईं न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु आहार करते हैं । क्योंकि-गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के हैं | -मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । इस प्रकार प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक के समान कहना।
भगवन् ! नारकों के कितने अध्यवसान हैं ? गौतम ! असंख्येय । भगवन् ! वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? गौतम ! दोनों होते हैं । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना । भगवन् ! नारक सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं, अथवा मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, या सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं ? गौतम ! तीनों होते हैं । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना । विशेष यह कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं। सूत्र-५८८
भगवन् ! क्या देव देवियों सहित और सपरिचार होते हैं ? अथवा वे देवियों सहित एवं अपरिचार होते हैं ? अथवा वे देवीरहित एवं परिचारयुक्त होते हैं ? या देवीरहित एवं परिचाररहित होते हैं ? गौतम ! (१) कईं देव देवियों सहित सपरिचार होते हैं, (२) कईं देव देवियों के बिना सपरिचार होते हैं और (३) कईं देव देवीरहित और परिचाररहित होते हैं, किन्तु कोई भी देव देवियों सहित अपरिचार नहीं होते । क्योंकि-गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशानकल्प के देव देवियों सहित और परिचारसहित होते हैं । सनत्कुमार, यावत् अच्युतकल्पों में देव, देवीरहित किन्तु परिचारसहित होते हैं । नौ ग्रैवेयक और पंच अनुत्तरौपपातिक देव देवीरहित और परिवाररहित होते हैं । किन्तु ऐसा कदापि नहीं होता कि देव देवीसहित हों, साथ ही परिवार-रहित हों।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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