Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना’
पद / उद्देश / सूत्र
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? तथा क्या कृष्ण-लेश्यी हो कर उद्वर्त्तन करता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । (किन्तु ) उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नील-लेश्यी और कदाचित् कापोतलेश्यी होकर करता है । इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी में भी जानना । भगवन् ! तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक क्या तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तेजोलेश्यी हो कर ही उद्वर्त्तन करता है? हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है, ( किन्तु ) उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नीललेश्यी और कदाचित् कापोतलेश्यी होकर करता है ।
अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों को भी इसी प्रकार समझना । तेजस्कायिकों और वायुकायिकों भी इसी प्रकार है विशेषता यह कि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती । विकलेन्द्रियों को भी इसी प्रकार जानना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों का कथन भी पृथ्वीकायिकों के समान है । विशेषता यही है कि पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ छहों लेश्याओं का कथन कहना । वाणव्यन्तर देवों को असुरकुमारों के समान जानना । भगवन् ! क्या तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? असुरकुमारों समान ही ज्योतिष्कों में समझना । इसी प्रकार वैमानिक देवों में भी कहना । विशेषता यह कि 'च्यवन करते हैं' ऐसा कहना ।
भगवन् ! कृष्णलेश्यी यावत् कापोतलेश्यी नैरयिक क्या क्रमशः उसी लेश्यावाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? क्या वह वहीं लेश्यावाला होकर ही उद्वर्त्तन करता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी असुरकुमार (क्रमशः) कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! पूर्ववत् ही असुरकुमार के विषय में भी यावत् स्तनितकुमार कहना । भगवन् ! कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी पृथ्वी - कायिक, क्या (क्रमशः) कृष्णलेश्यी यावत् तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त होता है ? हाँ गौतम ! उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नीललेश्यी तथा कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्वर्त्तन करता है, कदाचित् जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्त्तन करता है । विशेष यह कि तेजोलेश्यी होकर उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्यी होकर उद्वृत्त नहीं होता । अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में भी इसी प्रकार कहना ।
भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी, यावत् कापोतलेश्यी तेजस्कायिक, (क्रमशः) उसी लेश्यावाले तेजस्कायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तथा क्या वह (क्रमशः) उसी लेश्यावाला होकर ही उद्वृत्त होता है ? हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्णलेश्यी, कदाचित् नीललेश्यी, कदाचित् कापोतलेश्यी होकर उद्वर्त्तन करता है । इसी प्रकार वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में कहना । भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक (क्रमशः) उसी लेश्यावाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या उसी लेश्या से युक्त होकर (मरण) करता है ? हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन कदाचित् कृष्णलेश्यी यावत् कदाचित् शुक्ललेश्यी होकर करता है । मनुष्य को भी इसी प्रकार समझना । वाणव्यन्तर देवको असुरकुमारकी तरह समझना । ज्योतिष्क और वैमानिक देव को भी इसी प्रकार समझना । विशेष यह कि जिसमें जितनी लेश्याएं हों, उतनी लेश्याओं का कथन करना तथा 'च्यवन' शब्द कहना ।
सूत्र - ४६०
भगवन् ! कृष्णलेश्यी नैरयिक कृष्णलेश्यी दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता और देखता है ? गौतम ! बहुत अधिक क्षेत्र न जानता है न देखता है न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता और देख पाता है, थोड़े से अधिक क्षेत्र को ही जानता है और देखता है । क्योंकि–गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों ओर देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित दूसरे पुरुष की अपेक्षा से सभी दिशाओं-विदिशाओं में बार-बार देखता हुआ न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और देखता है, यावत् थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जानता और देखता है । इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक .... यावत् थोड़े ही क्षेत्र को देख पाता है । भगवन् ! नीललेश्यी वाला नारक,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (प्रज्ञापना)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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