Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश /सूत्र कायिक के समान ही द्वीन्द्रिय जीवों में भी समझना । विशेष यह कि वे मनःपर्यवज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव भी यावत् मनःपर्यवज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । जो मनःपर्यवज्ञान प्राप्त करता है, वह केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। सूत्र - ५०४
___भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंच पंचेन्द्रितिर्यंचों में से उद्धृत्त होकर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई होता है और कोई नहीं । जो उत्पन्न होता है, उनमें से कोई धर्मश्रवण प्राप्त करता है और कोई नहीं । जो केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, उनमें से कोई केवलिबोधि समझता है, कोई नहीं । जो केवलिबोधि समझता है, वह श्रद्धा, प्रतीति और रुचि भी करता है । जो श्रद्धा-प्रतीति-रुचि करता है, वह आभिनिबोधिक यावत् अवधिज्ञान भी प्राप्त कर सकता है । जो आभिनिबोधिक यावत् अवधिज्ञान प्राप्त करता है, वह शील से लेकर पौषधोपवास तक अंगीकार नहीं कर सकता ।इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों में कहना ।
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति के समान समझना | पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों और मनुष्यों में नैरयिक के समान जानो । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नैरयिकों के समान जानना । इसी प्रकार मनुष्य को भी जानो । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार के समान हैं
सूत्र-५०५
भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है ? गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं क्योंकि-गौतम ! जिस रत्नप्रभापथ्वी के नारक ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट, निधत्त, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत है, उदीर्ण है, उपशान्त नहीं हुआ है, वह उद्धत्त होकर तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिसे तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध यावत् उदीर्ण नहीं होता, वह तीर्थंकरत्व प्राप्त नहीं करता । इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में समझना।
भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी का नारक पंकप्रभापृथ्वी से निकल कर क्या तीर्थंकरत्व प्राप्त कर लेता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है । धूमप्रभापृथ्वी नैरयिक सम्बन्ध में यह अर्थ समर्थ नहीं है किन्तु यह विरति प्राप्त कर सकता है । तमःपृथ्वी नारक में भी यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह विरताविरति पा सकता है । अधःसप्तमपृथ्वी भी नैरयिक तीर्थंकरत्व नहीं पाता किन्तु वह सम्यक्त्व पा सकता है । असुरकुमार भी तीर्थंकरत्व नहीं पाता, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। इसी प्रकार अप्कायिक तक जानना।
भगवन ! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से उद्धत्त होकर अनंतर उत्पन्न हो कर क्या तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण पा सकता है। इसी प्रकार वाय-कायिक के विषय में भी समझ लेना । वनस्पतिकायिक विषय में पृच्छा ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय ? वे तीर्थंकरत्व नहीं पाता किन्तु मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव ? तीर्थंकरत्व प्राप्त नहीं करते, किन्तु अन्तक्रिया कर सकते हैं | भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव ? गौतम ! कोई तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है और कोई नहीं, इत्यादि रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के समान जानना । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक समझना। सूत्र-५०६
भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक उद्वर्त्तन करके क्या चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है ? गौतम ! कोई प्राप्त करता है, कोई नहीं क्योंकि-गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों को तीर्थंकरत्व प्राप्त होने, न होने के कारणों के समान चक्रवर्तीपद प्राप्त होना, न होना समझना । शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक उद्वर्त्तन करके सीधा चक्रवर्तीपद पा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक समझ लेना । तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों से निकल कर सीधे चक्रवर्तीपद प्राप्त नहीं कर सकते । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अपने-अपने भवों से च्यवन कर इसमें से कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है, कोई नहीं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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