Book Title: Agam 15 Pragnapana Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १५, उपांगसूत्र-४, 'प्रज्ञापना'
पद/उद्देश/सूत्र विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग (प्रमाण) हैं । जो मुक्त शरीर हैं, उनके विषय में मुक्त
औदारिक शरीरों के समान कहना । (इनके) (बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों के विषय में, इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के औदारिकशरीरों की तरह प्ररूपणा करनी चाहिए । तैजस और कार्मण शरीरों के वैक्रियशरीरों के समान समझ लेना। स्तनितकुमारों तक शरीरों को भी इसी प्रकार कहना । सूत्र-४०४
भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिकशरीर हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात काल से-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से वे असंख्यात लोक-प्रमाण हैं। जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं | कालतः अनन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः अनन्तलोकप्रमाण हैं | (द्रव्यतः वे) अभव्यों से अनन्तगुणे हैं, सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं । पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे उनको नहीं होते । जो मुक्त हैं, वे उनके औदारिकशरीरों के समान कहना । उनके आहारकशरीरों को उनके वैक्रियशरीरों के समान समझना । तैजस-कार्मणशरीरों का उन्हीं के औदारिकशरीरों के समान समझना । इसी प्रकार अप्कायिकों और तेजस्कायिकों को भी जानना।
भगवन् ! वायुकायिक जीवों के औदारिकशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । इन औदारिक-शरीरों को पृथ्वीकायिकों के अनुसार समझना । वायुकायिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं । (कालतः) यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में उनका पूर्णतः अपहरण होता है। किन्तु कभी अपहरण किया नहीं गया है (उनके) मुक्त शरीरों को पृथ्वीकायिकों की तरह समझना । आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों को पृथ्वीकायिकों की तरह कहना । वनस्पतिकायिकों की प्ररूपणा पृथ्वीकायिकों की तरह समझना । विशेष यह है कि उनके तैजस और कार्मण शरीरों का निरूपण औधिक तैजस-कार्मण-शरीरों के समान करना।
भगवन ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने औदारिकशरीर हैं? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध औदारिक-शरीर हैं, वे असंख्यात हैं । कालतः-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्रतः-असंख्यात श्रेणि-प्रमाण हैं । (वे श्रेणियाँ) प्रतर के असंख्यात भाग (प्रमाण) हैं । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, असंख्यात कोटाकोटी योजनप्रमाण है । (अथवा) असंख्यात श्रेणि वर्ग-मूल के समान होती है। द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिक शरीरों से प्रतर अपहृत किया जाता है । काल की अपेक्षा से-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-कालों से (अपहार होता है)। क्षेत्र की अपेक्षा से अंगुल-मात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यात भाग प्रतिभाग से (अपहार होता है) । जो मुक्त
औदारिक शरीर हैं, वे औधिक मुक्त औदारिक शरीरों के समान कहना । (उनके) वैक्रिय और आहारकशरीर बद्ध नहीं होते । मुक्त (वैक्रिय और आहारक शरीरों का कथन) औधिक के समान करना । तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में उन्हीं के औधिक औदारिकशरीरों के समान कहना । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक कहना । पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के विषय में इसी प्रकार कहना । उनके वैक्रिय शरीरों में विशेषता है-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों के वैक्रियशरीर दो प्रकार के हैं, बद्ध और मुक्त । जो बद्ध वैक्रियशरीर हैं, वे असंख्यात हैं, उनकी प्ररूपणा असुरकुमारों के समान करना । विशेष यह है कि (यहाँ) उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवाँ भाग समझना । उनके मुक्त वैक्रियशरीरों के विषय में भी उसी प्रकार समझना।
भगवन् ! मनुष्य के औदारिकशरीर कितने हैं ? गौतम ! दो-बद्ध और मुक्त । जो बद्ध हैं, वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं । जघन्य पद में संख्यात होते हैं । संख्यात कोटाकोटी तीन यमलपद के ऊपर तथा चार यमलपद से नीचे होते हैं । अथवा पंचमवर्ग से गुणित छठे वर्ग-प्रमाण हैं; अथवा छियानवै छेदन-कदायी राशि (जितनी संख्या है ।) उत्कृष्टपद में असंख्यात हैं । कालतः-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवस-र्पिणियों से अपहृत होते हैं । क्षेत्र से-एक रूप जिनमें प्रक्षिप्त किया गया है, ऐसे मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है, उस श्रेणी की काल और क्षेत्र से अपहार की मार्गणा होती है-कालत:-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकालों से अपहार होता है ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रज्ञापना) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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